Wednesday 25 September 2013

अथ पंकज पुराण : प्रेम की नैया है हमरे भरोसे



     वो दरभंगा नवोदय विद्यालय की छात्रा थी, जो दरभंगा टाउन में नहीं था और ये सीएम साइंस कॉलेज का छात्र था, जो दरभंगा टाउन में था । उसका दरभंगा टाउन में घर था,  लेकिन वो टाउन से बाहर रहती थी, जबकि इसका घर तो गाँव में था लेकिन पढने दरभंगा आया था । उसने दसवीं की परीक्षा दी थी और इसने इंटरमीडीयेट की । जहाँ उसका घर था उससे जुड़े हुए दूसरे मकान में हमलोग किरायेदार थे और मैं हालाँकि इससे जूनियर था लेकिन थे हमलोग मित्रवत| “हमलोग” अर्थात श्री श्री 1008 पंकज जी महाराज, राजा और मैं| साथ में तो राजू भैया भी रहते थे, लेकिन वो सबके भैया ही बने हुए थे | 
      उसका परिवार पहले मंजिले पर रहता जबकि हमलोग पड़ोसी मकान के ग्राउंड फ्लोर पर थे | उसके और हमलोगों के आवास की बनावट कुछ इस तरह से थी कि पंकज जी महाराज के घर की खिड़कियों से उसके घर की बालकोनी का बड़ा ही नजदीकी संबंध था | ऐसा लगता की ये खिड़कियाँ उस बालकोनी में ही लगी हो और उनलोगों को छत से उतर कर बाहर जाने के लिए पंकज जी की नजर से गुजरना भी लाज़िमी था | वो दरअसल में दसवीं की परीक्षा देकर वक्त गुजारने दरभंगा अपने घर आई थी | लेकिन पता नहीं क्यों उसने ग्यारहवीं में दरभंगा में ही एडमिशन क्यों लिया जबकि नवोदय में तो बारहवीं तक की व्यवस्था थी | बाद में पता चला की फ्यूचर डॉक्टर साहिबा ने इसके लिए अपने घरवालों से जिद की थी | 
      हमारा और पंकज जी का कमरा एक ही साथ था अगल – बगल में | कमरे के पीछे एक छोटा सा खुला अहाता था, वो उस छोटे से मुहल्ले के बीचों बीच था और वहाँ उस छोटी सी कॉलोनी के हमउम्र लड़के क्रिकेट खेला करते | मुझे तो कुछ का नाम भी अब तक याद है  – कुणाल, सौरभ, रोहित और एक जुड़वा राम – श्याम | पंकज जी अपने कमरे से और मैं अपने कमरे की खिड़कियों से उस कॉलोनी क्रिकेट का लुत्फ़ उठाया करते | चूँकि राजा का कमरा थोड़ा अलग हट के था इसलिए वो उस नियत समय में मेरे ही कमरे में आ जाया करता | बाकी बचे राजू भैया, तो चूँकि वो काफी समय से उस हस्तिनापुर कॉलोनी में कम्पीटीशन की तैयारी के भीष्म बने हुए थे, अतः मुहल्ले में उनकी काफी जान -पहचान थी, इसीलिए वे छत से मैच भी देखते और मुहल्ले की महिलाओं से वार्ता- रस भी लेते रहते थे | कुल मिलाकर हमलोग भी उस कॉलोनी क्रिकेट का दर्शक हुआ करते | हमलोग “भी” इसीलिए क्योंकि खिलाड़ियों की मम्मियाँ और पापागण अपने अपने छत से मैच का दर्शक बनते थे और चूँकि उनके बेटे ही खिलाड़ी थे इसीलिए मैच का प्रथम दर्शक होने का तमगा भी उन्हें ही दिया जाना उचित है | उस क्रिकेट फिल्ड का एक बाउंड्री वाल उसके घर के अगले हिस्से से जुडा हुआ था | चूँकि बाउंड्री वाल कद से बौना था अतः चौकों – छक्कों से उसके अहाते में जाने वाली गेंद लाने में कोई मुश्किल कोई परेशानी नहीं थी | परेशानी इसलिए भी नहीं थी क्योंकि उसका एक ममेरा भाई जो वहीं रहता था वह भी उस कॉलोनी क्रिकेट का एक खिलाड़ी हुआ करता था | इसीलिए वह भी अपने बालकोनी से क्रिकेट का दर्शक बनती थी | उसके दर्शक बन जाने से मुहल्ले के लड़कों में अचानक क्रिकेट प्रेम हिलोरे लेने लगा और धीरे –धीरे खिलाड़ियों की संख्या क्रिकेट के नियमों का उल्लंघन करने लगी | परिणाम ये हुआ कि उस क्रिकेट के लिए नए नियम बनाये जाने लगे, गोया कि गेंद हवा में तैरते हुए बाउंड्री वाल के ऊपर से बाहर चली जाय तो खिलाड़ी आउट आदि आदि | हमलोग भी उचित समय पर अपनी – अपनी खिड़कियों पर जम जाते थे | मैं अपनी खिड़की का वह पल्ला बंद करके रखता जहाँ से वह दिखाई देती थी जबकि पंकज जी अपनी खिड़की के उस पल्ले को तक़रीबन चौबीसों घंटे खोल कर रखते थे, पता नहीं कब उसका दर्शन - लाभ मिल जाए इसीलिए। हालाँकि ये अलग बात है की पंकज बाबू आरंभ में इस आरोप को कतई नहीं स्वीकारते - "अरे नहीं यार स्वच्छ हवा और धूप के लिए खिड़की खुली रखनी चाहिए" "लेकिन पंकज बाबू धूप तो पूरब या दक्षिण से ही आएगी न, खिड़की तो पश्चिम में है और पीछे इतने मकान हैं की इधर से धूप आ नहीं सकती", पंकज जी झेंप से जाते मुस्कुरा कर कहते - "ग़लतफ़हमी में जी रहे हो तुमलोग"। 
      क्रिकेट का गेंद कई बार तो सीमारेखा को चीरते हुए हमारी खिड़कियों से घर में घुस जाता, 'फटाक' जोर से आवाज होती | हमलोग अपने मकान मालिक को 'बाबा' कहते थे | वो रिटायर्ड थे । काफी सनकी लेकिन अच्छे – बुरे का मिश्रण इंसान थे | चूँकि कई सालों तक उसने आर्मी में अपनी सेवायें दी थी, इसलिए हरेक वाक्य में अपशब्द बोलना उनका तो मानो धर्म ही बन गया था | गेंद का धमाका सुनकर वो चिल्लाते – “साला ये आवाज, क्या पीट रहे हो तुमलोग ?” हमलोग अपने – अपने कमरे से बाहर निकल आते –“बाबा पीछे सभी क्रिकेट खेल रहे हैं उसीका गेंद खिड़की से अंदर आ जाता है” “तो खिड़की बन रखा करो न, गेंद मत दो सालों को” “लेकिन बाबा ........” “चोप्प जितना कहते हैं उतना ही करो, घर हमारा है की तुम्हारा, कुछ टूटेगा तो हर्जाना देना पड़ेगा, समझा तुमलोग” । हमलोग उदास, उस रौबदार आवाज से सहम कर अपनी – अपनी खिड़की बंद कर लेते और खिलाड़ियों से यह कहना नहीं भूलते की खिड़की पर गेंद जोर – जोर से मारो | चूँकि हमलोग अपने –अपने बॉक्स से उस कॉलोनी क्रिकेट का सम्मान प्रतिदिन बढ़ाया करते थे अतः खिलाडियों से काफी हेल –मेल बढ़ गई थी | खिलाड़ी तो बॉक्स में बैठे स्पेशल क्लास की अर्जी को ठुकरा भी नहीं सकते अतः इस प्रकार गेंद का आक्रमण खिड़की पर होने लगा –भटाक–भटाक-भटाक | “साला फिर से कौन दरवाजा तोड़ रहा है ?” - बाबा दहारते ।  हमलोग पुनः सामूहिक गान की तरह बोलते – “बाबा वो खिड़की बंद कर दिए हैं न, इसीलिए गेंद .....” बाबा दांत पिसते हुए चिंघारते “खिड़की खोलो जल्दी, साले ये कॉलोनी  वालों ने बच्चे पैदा करके हमारा ही घर तोड़ने के लिए लगा दिया है” | हमलोग विजयी मुस्कान के साथ फटाफट अपनी – अपनी खिड़की पर जम जाते थे | पंकज जी तो धराम से अपने बेड पर कूदता और खिड़की के पल्ले को खटाक से मारता, बालकोनी में भी एक चमक आ जाती | उधर बाबा छत की चढ़ाई करने लगते जैसे कारगिल की चढ़ाई कर रहे हों और चूँकि छत खुली हुई थी तो वहाँ से सभी खिलाड़ियों पर एक साथ वाक् आक्रमण आसानी से किया जा सकता था – “हरामखोरों, भागो यहाँ से, यदि एक बार भी गेंद मेरे दीवाल तक तो छू गई तो खैर नहीं, सबको थाने पहुंचा दूँगा”| सभी खिलाड़ी बाबा के इस रौद्र रूप से डरकर बाउंड्री वॉल की ओट में सांसे रोककर छिप जाते, एकदम निःशब्द | हम आहिस्ता से बिना आवाज किये दुबारा अपनी – अपनी खिड़की बंद कर लेते, लेकिन पंकज जी थोड़ा सा खुला ही रखते थे, घर में स्वच्छ हवा आना चाहिए न | जब इस आक्रमण का शोर कुछ देर तक थमा रहता तो सारे विरोधीगण पुनः मैदाने – ए – क्रिकेट में अपने – अपने हथियारों के साथ जम जाते | 
      इधर बाहर धीरे –धीरे अंधेरा बढ़ता जाता और घरों में बिजली चमकने लगती उधर पंकज जी के चेहरे का फ्यूज उड़ता जाता धीरे – धीरे | ये बातें हमने तब नोटिस की थी जब वह शाम के समय में चुपके से छत पर टहलने के लिए अकेले ही जाने लगे | वह इंसान जो खाने –पीने से लेकर गाना बजाना, मूवी देखना, बाजार जाना सभी कुछ हमलोगों के साथ ही करता अचानक टहलने के लिए अकेले ही कैसे निकल पड़ता है, वो भी अकेले | रवीद्रनाथ को तो उसने अभी तक पढ़ा नहीं था इसका मुझे पूरा यकीन था | फिर ‘एकला चलो रे’ कैसे और कब से सीख गए पंकज बाबू | अब हमलोगों ने ख़ुफ़िया तरीके से पंकज जी की गतिविधियों पर नजर रखना आरंभ कर दिया| और, धीरे – धीरे हम न केवल उनकी बाह्य गतिविधियों से वाकिफ हुए बल्कि आंतरिक उथल-पुथल की कलई भी हमलोगों के समक्ष खुलने लगी | फिर हमलोगों ने देखा खिड़की –बालकोनी की ईशारेबाजी, हमने देखा छत से  छत की ईशारेबाजी ।  उसकी मुस्कान पर पंकज जी के चेहरे पर उभरने वाली चमक को हमने देखा और दिन ढलते ही पंकज का मुरझाना भी हमने देखा | पंकज जी शर्मीली मुस्कान के साथ निरुत्तर हो जाते| इस प्रकार हमारे मष्तिस्क पर जमा कोहरा छंट गया और फलक से उतरकर एक ‘किरण’ पंकज जी की खिड़कियों पर बराबर पड़ने लगी | मेरे और राजा की यह छोटी सी ख़ुफ़िया इकाई की यह प्रथम सफलता थी और हमारे सर पर ऐसी ही बेशुमार सफलता का सेहरा सजना बाकी था अभी| हमारी ख़ुफ़िया टीम का निष्कर्ष - 'दोनों तरफ है आग बराबर लगी हुई' । इसीलिए अपनी इस छोटी सी सफलता से प्रेरित होकर हमने इस ख़ुफ़िया इकाई के कंधों पर एक गुरुतर जिम्मेदारी डाल दी| जिम्मेदारी – पंकज जी के प्रेम की नैया को पार लगाना |   

Friday 20 September 2013

संस्मरण : सरसों के तेल से बॉडीलोशन तक


मौसम में कुछ बदलाव सा आभास हो रहा है| सर्दी का महीना धीरे – धीरे बूढा होता जा रहा है| वातावरण में नमी की कमी महसूस होने लगी है| इस मौसम में शरीर की त्वचा भी वातावरण से सांठ – गांठ करते हुए खुश्क हो जाती है| यह अजीब सा रूखापन शरीर के साथ मन को भी चिड़चिड़ा कर देता है| नमी के संतुलन को बनाए रखने के लिए या यूँ कहे की बॉडी लोशन का प्रयोग करके हम प्रकृति की आँखों में धूल झोंक कर अपने शारीरिक मानसिक रूखापन का अंत कर देते हैं|  
आज प्रकृति से मेरी मुठभेड़ हो गई| ऑफिस जाने से पहले मैंने जो लोशन लगाया, वह घर पहुँचने से पहले ही दगा दे गई| दुबारा शाम में लोशन लगाना पड़ा| जब मैं अपने कठोड़ त्वचा को विजयी बना रहा था तो अचानक मस्तिष्क में कौंध सा गया कि कभी मैं इस महंगे, सुगंधित और जाने कौन–कौन से शुद्ध–अशुद्ध पदार्थों का सम्मिश्रण कर बनाए गए इस लोशन की जगह सौ फ़ीसदी शुद्ध सरसों का तेल लगाया करता था| वह तेल चूँकि पड़ोस के गाँव में ही पेड़ाई की जाती थी इसीलिए उसकी शुद्धता पर कोई शक नहीं था| गाँव में जब तेलिन “तेल लेब हो” चिल्लाते हुए तेल बेचने आती तो हमलोग वहाँ दौड़कर पहुँच जाते थे और तेल की शुद्धता की परीक्षा के बहाने सर से पैर तक तेल लगा लेते थे और अंत में निर्णायक की भूमिका में आ ये कहकर की “तुम्हारे तेल में मिलावट है हम नहीं खरीदेंगे” घर की तरफ सीना फुलाकर ऐसे निकल पड़ते जैसे की मैदान मार लिया हो|
किसी विशेष मौसम में त्वचा खुश्क होने की समस्या मुझे बचपन से ही रही है| समस्या तब ज्यादा विकराल हो जाती थी जब मुंडन, जनेऊ, विवाह या ऐसे ही किसी विशेष मांगलिक उत्सव में किसी अतिथि के घर मुझे ही अपने घर का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेज दिया जाता था | मैं बहुत विकट संकट में फँस जाता था| एक तो आरंभ से ही शर्मीला रहा हूँ और किसी से बातचीत करने में  कतराता हूँ, खास कर नए लोगों से, दूसरी, मेरी जालिम त्वचा| मैं ईश्वर से प्रार्थना करता कि हे ईश्वर किसी तरह छुपा कर सरसों तेल की व्यवस्था करवा देना| लेकिन भगवान निर्बलों की क्यों सुने भला, वो तो उसकी सुनते हैं जो चालीस मन के सोने का मुकुट चढ़ाए या करोड़ो का गुप्त दान अर्पित करे| वह सरसों का तेल ही था जो मुझ असामान्य मनुष्य को सामान्य बनाए रखने में मदद करता था| आखिर मैं वहाँ कैसे कह पाता कि मुझे बदन में लगाने के लिए सरसों का तेल दो| अपनी छोटी उम्र की बड़ी इज्जत का मुझे बखूबी ख़याल था| बच्चों की आत्मा बड़ी होती है, मैं छोटा था तो मेरी भी आत्मा बड़ी थी, लेकिन मैं जैसे–जैसे बड़ा होता गया हूँ, गाँव से शहर की ओर पलायन उसी क्रम में होता रहा है– गाँव से छोटा शहर, फिर उससे बड़ा, और बड़ा, बहुत बड़ा और हमारी आत्मा, हमारे शरीर और निवास स्थान के विपरीत जाते हुए छोटी होती गई| शर्मीलापन तो न जाने कब ख़त्म हो गया और अब तो बेगैरत की हद तक निर्लज्ज हो गया हूँ|
मेरी त्वचा ने लोशन का स्वाद पहली बार तब चखा था जब मैंने पढाई के सिलसिले को जारी रखने के लिए गाँव से पहली बार एक छोटे से शहर में अपना डेरा जमाया| एक महीने का खर्च घर से एक ही बार में मिल जाया करता था| खर्च का हिसाब घर में कुछ इस तरह दिखाते थे कि उसमे लोशन पर खर्च दिखे भी नहीं और गृह सरकार से उसके लिए मुद्रा पारित भी हो जाए| लोशन की तरफ आकर्षण के पीछे तीन कारण था – पहला, एक ही स्नेहक पदार्थ का प्रयोग करते-करते मन ऊब सा गया था, दूसरा, लोशन एक आकर्षक डिब्बे में बंद रहती है और दिखने में सुन्दर लगती है और तीसरा, सुगंध| ये तो जगजाहिर है कि सुन्दरता के साथ सुगंध का समायोजन होने पर वह न केवल आकर्षण का केंद्र होती है बल्कि मूल्यवान भी हो जाती है| “सोना में सुगंध” वाला मुहावरा भी तो इसको ही ध्यान में रखकर गढ़ा गया है| तो इस प्रकार गाँव से जैसे–जैसे दूर होता गया सरसों का तेल मेरी त्वचा से फिसलती चली गई तथा मैं सुंगंधयुक्त सुंदरी के गिरफ्त में फँसता चला गया|
अपनी त्वचा को प्राकृतिक प्रकोप से बचाने तथा बढती जा रही उम्र को धोखा देकर स्वंय को जवान बनाए रखने के लिए मैं प्रतिदिन सुबह स्नानादि के बाद उसका उपयोग करता हूँ| मुझे नहीं पता था कि किसी पर इतना निर्भर नहीं होना चाहिए जिससे कि वह अपना गुलाम ही बना ले| ऐसा ही तो हुआ था – पहले मैं अपनी इच्छा से उसका सदुपयोग करता था, किन्तु आज उसने मुझे बाध्य किया कि अब से शाम में भी उसकी कोमलता को अपनी त्वचा पर लेपन करें|
यही सोच रहा हूँ, सचमुच मानव अपनी इच्छाओं का गुलाम ही तो है| जैसे–जैसे हम तथाकथित सभ्य होते गए हैं, हमारी आवश्यकताएँ बढती गई और हमने प्रकृति से, प्राकृतिक वस्तुओं से अपना नाता ही तोड़ लिया तथा कृत्रिमता और यंत्र का सहारा लेकर यंत्र मात्र रह गए हैं| स्वछंदता के स्थान पर गुलामी का जीवन जीने के लिए अभिशप्त| 

Sunday 15 September 2013

एक यात्रा वैष्णो देवी की


   कुछ दिन पीछे ही वैष्णो देवी की यात्रा सम्पन्न करके वापस दिल्ली पहुँचा हूँ वहाँ मैंने देखा आस्थाओं का एक ऐसा सैलाब जो उमड़कर दूर निर्जन पहाड़ों में अपने विश्वास की अटूटता को कायम रखने के लिए वैष्णो देवी की छोटी सी शिला पिंड के दर्शन हेतु बड़ी-बड़ी शिलाओं को पार करते हैं उस आस्था की निर्मल गंगा को नमन, उस विश्वास की प्रचंडता को नमन और नमन मानव मन के सँकरे गह्वर में बसी उस पवित्र भावनाओं को भी, जो विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी आस्था को क्षीण नहीं होने देती, अपने विश्वास की डोर कटने नहीं देती और गह्वर में बसी पवित्र भावनाओं को जिन्दा रखती है।
   आज जबकि देश में सांप्रदायिक शक्तियाँ धर्म और मजहब को पेशा बनाकर इंसानों  में नफ़रतों और साम्प्रदायिक उन्माद की भावनाओं के रावण को उत्तेजित करने का कुकृत्य कर रही है और उस पर अपने स्वार्थ की रोटी सेंक रही है, वहाँ मैंने देखा अपने मजहब को भूलकर धर्म-पथ पर चलने में असमर्थ तीर्थ यात्रियों को अपने पीठ पर बीठाकर ले जाने वाले मुस्लिमों को। मैंने देखा भारत के सुदूर दक्षिण में बसे इसाई परिवारों को और कुछ सिख परिवारों को भी जो इस तथाकथित हिन्दुओं के जन्मसिद्ध अधिकार वाले तीर्थस्थलों का भ्रमण इसलिए भी करते हैं क्योंकि वह हमारे देश की सांस्कृतिक विरासत है। वास्तव में श्रद्धालुओं का कोई धर्म नहीं होता, वह तो धर्म, मजहब और जाति-पाँति के संकीर्ण मानसिकता से परे होता है। उसे तो अपने श्रद्धेय पर अटूट विश्वास होता है और रिश्ता, भक्त - भगवान का बन जाता है।
   यदि श्रद्धेय और श्रद्धालुओं के बीच का रिश्ता इसी कदर अटूट बना रहा।  यदि लोग इसी तरह अपने धर्म, मजहब और जाति-पाँति को भूलकर इस धर्म-पथ को अपना कर्तव्य-पथ बनाने लगे और स्वंय को इस संकीर्ण दीवारों की कैद से मुक्त कर एक दूसरों के साथ इंसान-इंसान और भाईचारा का रिश्ता कायम करने लगे तो वह दिन दूर नहीं होगा जब देश से असामाजिक तत्व नष्ट हो जाएंगे और हमारा देश विश्व शांति का अग्रदूत बन जाएगा वैष्णो देवी से हमारी यही प्रार्थना है जय माता दी

Tuesday 3 September 2013

कांटे की व्यथा कथा

फूलों की कोमल पत्ती को 
तोड़ न ले जाए माली,
दिन-रात यहाँ करता रहता
हूँ इसीलिए पहरेदारी |

विश्राम मैं कभी करू न
सहूँ मैं झंझों के झोके,
खड़ा हमेशा रहता हूँ
आहत का क्रंदन उर लेके|

यह पौध हमें क्यों पाल रहा
यह कठिन परीक्षा साल रहा,
पांडव जैसा हो गया गति
लुट गयी हजारों द्रौपदी,
आते जब कोई चुनने को
मैं मौन खड़ा देखा करता,
अपने क्रंदन और पीड़ा को
न उसके कर में हूँ भरता,
अब कौन कृष्ण कहलायेगा
गीता का सार सुनाएगा,
विष मेरे शीर्ष भी उगलेंगे
कोमल पत्ती सुरभित होंगे|

पर एक बात अब भी चुभता
ऐसी सुन्दरता ही क्या
कर सके जो न अपनी रक्षा,
अपनी रक्षा - अपनी रक्षा|