Tuesday 2 April 2013

नितांत अकेला

 जब कभी मैंने
नए रिश्ते बनाए हैं
सपनों के महल सजाएं हैं 
 पूर्णिमा के चाँद की तरह 
खुशियाँ दमकने लगती है 
भाग्य बुलबुल की तरह 
मन की खिड़कियों पर चहकने लगती है
किन्तु, उसी क्षण 
चाँद बनता है
काले बादलों का ग्रास 
हमारी अपेक्षाएँ बढती है और 
रिश्तों में आ जाती है खटास,
लोग मुझे अब जानने लगे हैं 
इस क्षत - विक्षत व्यक्तित्व को 
पहचानने लगे हैं,
अब कुछ मुझसे कतराते हैं 
और कुछ को नहीं जँचता हूँ 
इसीलिए जो दूर भागते हैं 
मैं भी उनसे बचता हूँ,
भय के वशीभूत होकर मैंने 
सारे रिश्ते तोड़ दिए हैं 
नए रिश्ते बनाने छोड़ दिए हैं 
और हरवक्त - हमेशा 
दुनिया की इस भीड़ में 
रहता हूँ अपनों से दूर अकेला 
और नितांत अकेला ।