Saturday 21 December 2013

अथ पंकज पुराण - (राम-श्याम-किरण) - 1

        हमारी खिड़की के बाहर का जो क्रिकेट मैच हुआ करता था बड़ा ही रोमांचकारी | हरेक उम्र के खिलाड़ी, छोटा सा फिल्ड, नए-नए नियम जो प्रायः प्रतिदिन बदलते रहते और उसके दर्शकगण जोकि खिलाड़ियों के पारिवारिक कुटुंब ही थे, के कारण मैच का रोमांच चरम स्तर का चुम्बन करने लगता | हाँ, उस क्रिकेट की खास बातों में से एक यह भी थी कि उसमे किसी अम्पायर की व्यवस्था नहीं थी | कारण, आरंभ में तो इसकी व्यवस्था की गई थी लेकिन अंपायर मैच को रोमांचक बनाने का हिस्सेदार बनने के लिए खुद भी खेलने की जिद करने लगता था, अंततः अंपायर व्यवस्था को ही रद्द कर दिया गया | इस खेल का एक और नियम था कि विपक्षी टीम के खिलाड़ी को भी अपनी टीम की बैटिंग के समय फील्डिंग करनी पड़ती थी, हालाँकि यह नियम कुछ लचीला था, गोया कि खिलाड़ियों की संख्या ज्यादा हो जाती तो यह नियम लागू नहीं होता |
        हमलोग अपनी खिड़की से क्रिकेट का दर्शक बनते और किरण अपनी बालकोनी से | किरण के दर्शक बनते ही कॉलोनी में नए-नए खिलाड़ी पैदा होने लगे थे | खिलाड़ी की संख्या इसीलिए भी बढ़ने लगी क्योंकि अब दूसरे कॉलोनी के लड़कों के लिए भी यहाँ का अनुशाषित फिल्ड, यहाँ के प्रतिदिन परिवर्तनकारी नियम और यहाँ के देवलोक साम्य दैदीप्यमान दर्शकगण आकर्षण का कारण बन गए थे |
        किरण के भाई को छोड़कर सारे खिलाड़ी अपनी-अपनी भूमिका का निर्वहण करने में पूरी जान लगा देते, जिससे कि किरण की नजर का सुगन्धित झोंका उस पर भी पड़े | बल्लेबाज ताबड़तोड़ रन बनाने की कोशिश करता – ये गई गेंद बाउंड्री लाईन से बाहर और आऊट (यहाँ का नियम ही यही था)- और बॉलर पिछवाड़े से जोर लगा कर गेंद फेंकता जैसे कि साक्षात शोएब अख्तर हों |
        किरण को इस बात की ओर तनिक भी ध्यान नहीं था कि खिलाड़ियों की भीड़ अचानक से क्यों बढ़ने लगी है | वास्तव में वह भले ही शारीरिक रूप से बालकोनी से मैच देख रही हो लेकिन मानसिक रूप से वह पंकज जी की खिड़की से होकर उसके कमरे में पहुँच गई होती थी |
       कॉलोनी के ही कुछ लड़के जो किरण को कॉलोनी की अमानत समझते थे यह सोचकर खासे बेचैन रहते कि यदि दूसरी कॉलोनी से इन उच्चवर्गीय खिलाड़ियों का यूँ ही आयत होता रहा तो हो न हो इस कॉलोनी की अमानत को कोई और उड़ा ले जाएगा और हमलोग हाथ मलते रह जायेंगे| अमानत के इन तथाकथित पहरेदारों के चेहरे पर फ्यूज उड़न भाव कभी-कभी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता था |
        कॉलोनी मे वहीँ फिल्ड के बगल में एक जुड़वा भाई रहता था- राम और श्याम | दोनों ग्रैजुएशन का छात्र था, उस कॉलोनी क्रिकेट का पुराना और जिम्मेदार सदस्य तथा साथ ही जुझारू खिलाड़ी भी था | शक्ल-सूरत से लेकर सीरत तक दोनों की बिलकुल ही एक जैसी थी | हमलोगों की ज्यादा बातचीत नहीं हुई थी उससे आरंभ में इसीलिए क्रिकेट खिलाड़ी के तौर पर हमलोग दोनों को उसकी हँसने की अलग-अलग शैली से ही भिन्न-भिन्न कर पाते थे | राम, बड़ा भाई जब हँसता तो उसके मुँह के सारे दांत बाहर निकलने के लिए बेताब होने लगते जबकि श्याम हँसने के समय होठों को दबाने की असफल कोशिश करता और उसके बायें गाल पर एक डिम्पल भी उभर आता |
        दोनों भाई चूँकि कुछ सालों से वहीं रह रहे थे इसीलिए अब स्वंय को उस कॉलोनी का ही सदस्य समझने लगे थे | अतः “कॉलोनी में कोई असामाजिक कृत्य नहीं होने देने का सारा क्षार-भार अपने कंधों पर उठाये फिरते थे” वे दोनों | उनकी स्थिति कुछ-कुछ वैसी ही थी जैसे एक मुहल्ले  के आवारा कुत्ते अपने मुहल्ले में भोज होने पर दूसरे मुहल्ले के आवारा कुत्तों को पास फटकने नहीं देते |
         वहाँ जैसे है खिलाड़ियों का आयत होने लगा दोनों भाईयों की श्वान नासिका ने खतरों को सूंघ लिया | कॉलोनी क्रिकेट निर्माता खिलाड़ियों के बीच अब यह नियम बनाने का मुद्दा जोर शोर से उठाया जाने लगा कि केवल अपनी कॉलोनी के खिलाड़ी ही उस क्रिकेट में शामिल हो सकते हैं | लेकिन इस नियम के बनने से पडोसी कॉलोनी से संबंध बिगड़ने का डर था इसीलिए यह नियम बनाना तलवार की धार पर चलने जैसा था और अधिकांश अपनी मित्रता को भी यथावत रखना चाहते थे इसलिए यह नियम पारित नहीं हो सका |

        राम-श्याम की भी हालाँकि दूसरे कॉलोनी वालों से मित्रता थी, लेकिन वो दोनों नहीं चाहते थे कि बाहर से आये लड़के क्रिकेट खेलने के अतिरिक्त ध्यान दर्शकों पर लगाए, विशेषकर किरण के मुखकमल का रसपान करे | क्योंकि, दोनों भाई प्यार करते थे किरण से और वो भी एकतरफा वाला प्यार | दोनों का प्यार ‘गोदान’ की ‘मालती’ के लिए ‘मेहता’ का प्यार था, एक खूंखार शेर जो अपनी शिकार पर किसी की नजर नहीं पड़ने देता | खास बात ये थी कि चूँकि दोनों सहोदर भाई थे और अभी छात्र जीवन में ही गमन कर रहे थे इसीलिए अपने एकतरफा प्रेम-प्रसंग का पर्दाफास एक दूसरे के समक्ष करने से घबराते थे, या ये कहूँ कि डरते थे तो अधिक युक्तिसंगत होगा |  
                                                                     ........ क्रमशः 

Monday 9 December 2013

अथ पंकज पुराण : "प्रेम गली से हाइवे तक" (2)

        पंकज जी ने फटाक से दरवाजा बंद कर लिया और यहाँ तक कि उस दिन खोला ही नहीं | अगले दिन जब पंकज जी के समक्ष यही प्रसंग पुनः खोदा गया तो वो मुस्कुरा भर दिए | उन्होंने फिर खुद ही बताया कि किरण ने ग्याहरवीं में नवोदय छोड़कर दरभंगा में ही रहने का फैसला किया है - 
"यहाँ मेडिकल की अच्छी तैयारी होती है न इसीलिए, स्कूल के साथ - साथ मेडिकल की भी तैयारी करेगी" | "आपने कहा था क्या पंकज जी, यहीं पर रहो दरभंगा में ही" 
"हाँ मैंने एक बार ये तो कहा था कि नवोदय जहाँ पर है वहाँ तो मेडिकल की कोचिंग भी नहीं है, इस पर खुद उसी ने कहा कि ग्यारहवीं में यहीं रहूँगी"
"चिंता नहीं करने का पंकज जी हमलोग किसी को नहीं बताएँगे और कभी कुछ मदद की जरूरत हो तो हमलोग हैं ही यहाँ पर, मतलब नो चिंता नो फिकर"
        पंकज जी को हमारी मित्रता की वफादारी पर कोई शक नहीं था | वो जानते थे कि हमलोग उनके इस नव अंकुरित प्रेम प्रसंग का ढ़ोल पीटकर उस पर पाला नहीं पड़ने देंगे | इसीलिए वो आश्वस्त होकर इस पौधे को वटवृक्ष बनाने के लिए नियमित रूप से सिंचाई कार्य में जुट गए |         
        ग्रेजुएशन में नया-नया एडमिशन ही लिया था और कॉलेज तो रामभरोसे ही चलता था इसीलिए शुरूआती कुछ सप्ताह के बाद कॉलेज जाना लगभग परमानेंट ही बंद कर दिया पंकज जी ने | दरभंगा जैसे छोटे शहरों में भी प्रोफेसर और टीचर कॉलेज में क्लास इसीलिए भी नहीं लेते थे ताकि छात्रों की भीड़ उनके कोचिंग संस्थानों में इकट्ठी हो और वह अपनी नियत सैलरी के अलावा भी छात्रों से धन बटोर सके | विशेषकर विज्ञानं के छात्रों के समक्ष कोचिंग पढने की मजबूरी हो जाती थी और प्रायः सभी छात्र कोचिंग व्यवस्था के इस मकरजाल में उलझ ही जाता था | 
        पंकज जी भी उसी समय कोचिंग जाते जिस समय किरण स्कूल जाती और सारा कोचिंग शाम तक समाप्त कर दोनों साथ ही आते | लेकिन, दोनों का साथ घर से कुछ आगे जो हनुमान मंदिर था वहाँ से आरंभ होता और वहीँ पर ख़तम ताकि कॉलोनी वालों तक इस खिचड़ी की गंध न पहुँचे |  ये जिन्दगी हनुमान मंदिर से शुरू हनुमान मंदिर पर ख़तम टाइप की स्थिति थी दोनों की | 
        पंकज जी की यह यात्रा बदस्तूर और लगातार जारी रही कल -कल करती नदी की उच्छृंखल धार की तरह | इसके सामने आने वाली छोटी- छोटी स्कूल की छुट्टीनुमा रुकावटें भी बहती चली गई | जब स्कूल में छुट्टी होती  तो किरण यह बहाना करती घर में कि "मम्मी आज एक घंटा पहले से ही कोचिंग होगा, स्कूल में छुट्टी हैं न इसीलिए" | पंकज जी की जब कोचिंग में छुट्टी होती तो वह भी नियत समय पर हनुमान मंदिर से किरण के स्कूल तक की यात्रा के लिए निकलना न भूलते गोया कि तीर्थयात्रा कर रहे हों | 
        मुझे पता नहीं है, लेकिन बखूबी अंदाजा है कि शायद प्रेम करने वालों को एक दूसरे के साथ वक्त गुजारना काफी अच्छा लगता है | इसीलिए तो प्रेम की कसमें हमेशा साथ रहने, साथ जीने, साथ मरने की ही होती है अर्थात हर स्थिति में एक दूजे के लिए बन कर साथ-साथ रहने की अटूट इच्छा चाहे स्थिति सुखद अथवा दुखद | 
        पंकज जी और किरण इस प्रेम-पथ पर आगे बढ़ चले थे और ईशारेबाजी से आरंभ कर छोटा-छोटा साथ की गली से गुजर रहे थे | दोनों की यही तमन्ना थी - कैसे छोटा को बड़ा किया जाय, गली से हाईवे पर पहुँचे और इसकी रफ़्तार जिन्दगी की रफ़्तार से घुल-मिल जाय | परस्पर साथ रहने की भावना का लोप हो जाय और उसके बदले हम साथ-साथ हैं के प्राप्य का समावेश हो जाय | अभी तो काफी लम्बा रास्ता तय करना था दोनों को, जहाँ रस्ते में कांटे भी हैं फूल भी, चन्दन भी हैं धूल भी और जाना है बड़ी दूर बटोही |

Sunday 24 November 2013

अथ पंकज पुराण : "प्रेम गली से हाइवे तक" (1)

        आजकल पंकज जी का गेट अधिकांशतः बंद ही रहता है, कहते हैं कि पढाई का टेंसन हो गया है इसीलिए वो सीरियस रहते हैं और हमलोग उनके सीरियसपन को देखकर टेंसनाइज हो गए हैं |    
        मुझे क्या पता कि किरण छुट्टी में भी इतना सीरियस रहने वाली लड़की है | ग्यारहवीं में एडमिशन से पहले ही बुक लेकर अपनी बालकोनी में जमी रहती है | बिस्किट का रैपर फेंकने के लिए जैसे ही खिड़की खोला कि देखता हूँ किरण का नयन पंकज जी की खिड़की पर मासूम आघात कर रहा है | पहली बार पता चला कि पढाई भी संक्रामक रोग की तरह होती है लेकिन यहाँ ये नहीं पता कि किसका संक्रमण किसमे फैला है | 
        किसी भी संक्रमण का यथोचित समय में उपचार न किया जाय तो वह कैंसर का रूप पकड़ लेता है और पंकज जी पर हमारा कोई उपचार कारगर हो ही नहीं रहा था | हमलोगों ने कितना समझाया - प्यार के बीमार को उतार मेरे मनवा - लेकिन पंकज जी अपनी बीमारी से प्यार करते हैं और उन्हें बीमारी पैदा करने वाली से तो अटूट प्यार है | 
        "आप भी गजब करते हैं पंकज जी, राह चलते जिस लड़की को देखा आपको प्यार हो जाता है वो भी अटूट वाला प्यार" | पंकज जी जानते हैं हमलोग समीकरण समझ गए हैं लेकिन वो इश्क करते हैं मगर बताते भी नहीं और छुपाते भी नहीं - "अरे यार तुमलोग तो जानते हो मैं खिड़की पहले से ही खोल के रखता हूँ और मैंने थोड़े ही किसी को बालकोनी में बुलाया है, परीक्षा भी सर पर है तो अब से मटरगस्ती तो बंद करना ही पड़ेगा न"| हमलोग हथियार डाल जाते पंकज जी के इस डिफेंसिव स्ट्रोक पर क्योंकि पता है - वो झूठ नहीं बोलते भले ही हकीकत छुपा ले | 
        अब हमारी खुफिया टीम को पकड़ना था रंगे हाथों, पंकज जी को नयनों से नयनों का गोपन प्रिय सम्भाषण करते हुए | मैंने और राजा ने इस गुरुतर कार्य को सफल बनाने के लिए एक कार्ययोजना बनानी आरम्भ कर दी |
        मैं और राजा दोनों एक ही क्लास में पढ़ते थे, एक ही विषय पीसीएम के छात्र थे लेकिन स्कूल अलग-अलग था हम दोनों का | अपना अध्ययन कार्य छोड़कर दूसरों की गतिविधियों पर नजर रखना और अपनी खुफियागिरी के लिए खुद ही अपनी पीठ थपथपाना हमलोगों का फितूर बन गया था | दसवीं तक क्लास में मुझे ही मॉनिटर बनाया जाता था | क्लास में अनुशासन बनाये रखना और गैर-जिम्मेदाराना, असभ्य हरकत करने वालों पर नजर रखने की आदत शायद मेरे व्यक्तित्व में ही घर कर गई थी जो समय और स्थान परिवर्तन के बावजूद भी हमारे शरीर में अड्डा बनाये बैठा हुआ था | इसीलिए सारा काम पेंडिंग में डालकर दूसरों की गतिविधियों पर नजर रखने की छोटी से छोटी गुंजाईश होते ही हम पूरी मुस्तैदी से मॉनिटर बन जाते हैं, अभी भी | 
        जब हमारी यह छोटी खुफिया इकाई ने पंकज जी को रंगे हाथों पकड़ा था किरण का ईशारों-ईशारों में दिल लेते हुए तो हमने उन्हें कुछ नहीं कहा था उस समय बल्कि किरण के ईशारे की कॉपी - सेव कर ली थी दिमाग में और फिर जब उनका ईशारा-कांड समाप्त होने के बाद वही ईशारा मैंने उनपर पेस्ट करना चालू कर दिया था तो कैसे लाजवंती बन गए थे पंकज जी | चेहरे का भाव तो कॉलोनी के ही उस चोर की भांति हो गया था जो चोरी कर लेने के बाद भागते हुए पकड़ा जाता है - 
"हे हे हे हे अरे तुमलोग भी न, यार बहुत अच्छी है किरण नवोदय में पढ़ती है"- पंकज जी सफाई देने लगे | 
"अच्छा तो लगता है पूरा इतिहास भूगोल छान कर बैठे हैं साहब"
"इतिहास-भूगोल कुछ भी नहीं पता है मुझे, वो बराबर देख रही थी इधर तो मैंने पूछा था एक दिन बस"
"आपके 'इधर' ही क्यों मेरे 'इधर' क्यों नहीं पंकज जी, खैर छोडिये और ये बताइए कि सेटिंग कैसे करते हैं हो ?"
        पंकज जी चिढ़ से गए हमारे इस औत्सुक्य मिश्रित बेतुके सवाल पर और यह मुझे आज तक पता नहीं चला कि कोई प्रेमी इस वृत्तांत को क्यों नहीं शेयर करता है किसी से | अनुमान ही लगा सकता हूँ कि सच्चा प्रेमी यह राज कभी नहीं खोलते हैं शायद और जो इस वृत्तांत को चटकारे ले लेकर स्वंय को तीसमारखां दीखाना चाहते हैं वो निःसंदेह सच्चा प्रेमी नहीं हो सकता, उसके लिए तो प्रेम उम्र के एक विशेष पड़ाव पर मनोरंजन का सर्वजनदुर्लभ साधन ही हो सकता है मात्र  |   ....................... क्रमशः 
       
        

Friday 8 November 2013

अथ पंकज पुराण: बुद्धिमान के लिए ईशारा काफी (2)

(कहानी में तारतम्यता बनाए रखने के लिए कृपया सर्वप्रथम - "बुद्धिमान के लिए ईशारा काफी (1)" पढ़ें http://vivekmadhuban.blogspot.in/2013/10/1_23.html )
        
        माँ उतर रही है धीरे - धीरे अपने सैंडिल से सीढियों को पुचकारते हुए | चाल और चेहरा दोनों में गर्व झलक रहा है | किरण दीवाल की ओट से निकल माँ के साथ हो लेती है और ग्रिल से बाहर निकलने लगती है | दोनों की पीठ पंकज जी की खिड़की की तरफ है | किरण की आँख ग्रिल की कुण्डी पर है और ध्यान पंकज जी की खिड़की पर | अपनी पीठ पर दो आँख गड़ी हुई महसूस कर रही है, मन में गुदगुदी होती है और गर्दन नत हो जाती है | 
        ग्रिल से बाहर निकल किरण ने कुण्डी लगाई और खिड़की की तरफ चोर नजरों से देखा एक बार, पंकज जी मैदान में डटे हुए हैं | पहली बार दोनों की आँखें चार हुई और इधर किरण पुनः गर्दन नत कर शर्मा आंटी के घर के लिए माँ के पीछे हो ली | पंकज जी दोनों हाथों से अपने हार्ट को दबाये खिड़की के नीचे दुबक गए | किसी लड़की से जब आँखों ही आँखों में बाते होती है तो मन पुलकित क्यों हो जाता है ? बातें न भी हो, मौन भी क्यों धड़कन बढ़ा देता है? अजीब विरोधाभास है- धड़कन बढ़ भी जाती है लेकिन हार्ट अटैक का खतरा तक नहीं होता | उत्तर - पता नहीं - पंकज जी अपने ही प्रश्न के आगे निरुत्तर थे | 
        शर्मा आंटी के घर पहुँचकर मम्मी ने कॉलबेल का स्विच दबाया, पाँच मिनट तक किसी ने भी कोई उत्तर नहीं दिया अन्दर एकदम सन्नाटा पसरा रहा | शायद बाहर स्विच तो था लेकिन अन्दर बेल ही ख़राब थी | ग्रिल की कुण्डी खटखटाई तो अन्दर से एक सुरीली आवाज जिसमें जानबूझकर भारीपन लाई गई थी - "कौन है, इतना जोर से खटखटा रहा है ग्रिल को, तोड़ ही दो इससे अच्छा" - शर्मा आंटी की आवाज थी ये - "अरे आप, आइये-आइये, आ जाओ किरण बेटी, ये पता नहीं कौन सब आ जाता हैं और जोर-जोर से पीटने लगता हैं, हथौरा चला रहे हों जैसे, बुरा मत मानियेगा"- शर्मा आंटी शर्मिंदा होकर कुछ दीन स्वर में बोली थी | किरण की माँ समझ रही थी इस बात को | उन्हें भी तक़रीबन प्रतिदिन इस तरह की मुसीबतों से दो-चार होना पड़ जाता था - "बुरा क्यों मानेंगे भला, हमारे ग्रिल को तो लोंगो ने पीट-पीट कर बदरंग बना दिया है, लेकिन अब तो कॉलबेल लगवा दी है मैंने फिर भी लोगों को दिखता ही नहीं" | "हाँ बहुत अच्छा किया, मैं तो इनसे कह-कहकर थक गई कॉलबेल ठीक करवाने के लिए पर ये मेरी सुनते ही कब हैं"- आंटी ने प्रतिउत्तर में कहा - "अच्छा एक मिनट बैठिये मैं चाय बना लाती हूँ" |
"रहने दीजिये चाय-वाय कुछ ही देर में चले जायेंगे इनका टेलीफोन आने वाला है"
"नहीं-नहीं बिना चाय-नाश्ता के नहीं जाने दूंगी मैं, ऐसे भी आप आती ही कब हैं और किरण बेटी भी आई है आज " - शर्मा आंटी इतना कह झटपट किचन में घुस गई |
        किरण को समय काटना पहाड़ सा लग रह है | सोच रही कि कितनी जल्दी यहाँ से उड़कर अपनी बालकोनी में चली जाती | मन ही मन आंटी को कोसती है - "शर्मा आंटी भी न कितना व्यवहारिक होने लगती है, चाय-नाश्ता तो सभी अपने घर से ही करके आते हैं" | किरण बहुत व्यग्र हो रही है, बार-बार घड़ी देख रही है, उठक-बैठक कर रही है किन्तु माँ और आंटी किरण के इस मानसिक उथल-पुथल से अनभिज्ञ कॉलोनी की सारी महिलाओं का कच्चा-चिट्ठा टी-टेबल पर फैलाती जा रही है |
        खैर जैसे-तैसे कॉन्फ्रेस समाप्त हुई और समय का घोडा लंगड़ाते ही सही वह फासला भी तय कर लिया जब किरण अपनी बालकोनी में कुर्सी लगाकर और हाथ में पुस्तक लेकर ऐसे ही जम गई जैसे खिड़की पर पंकज जी |
        ये तो हो गया भैया - फर्स्ट साईट लव वाला मामला | निष्कर्ष यही निकला कि किरण न केवल पढने में होशियार है बल्कि पद्मावत की नागमती की तरह "दुनिया-धंधा' में भी कम बुद्धिमान नहीं है | इसीलिए तो पंकज जी के आँख के इशारे को पलक झपकते ही आत्मसात कर लिया उसने | कहा भी गया है - बुद्धिमान के लिए ईशारा काफी | 

(आपका बहुमूल्य कमेन्ट हमारे लेखनी की जीवन-शक्ति है)

Wednesday 23 October 2013

अथ पंकज पुराण: बुद्धिमान के लिए ईशारा काफी (1)

        "किरण को जो आप देख लो एक बार बिल्कुल्ले बदल गई गई है, शकल - सूरत से लेकर चाल-व्यवहार तक पहचाने में नहीं आती" - बगल वाली शर्मा आंटी अंकल से कह रही थी "नमस्ते भी किया इस बार, पहले तो कैसे अकड़ी रहती थी …लगता है नवोदय में अच्छी पढाई होती है तभी तो, हमारा दुनू में से एक का भी हो जाता, पढने में तो कितना तेज है हमारा दुनू बच्चा … पक्का किरण के पापा ने कोई जुगाड़ भिड़ाया होगा" । 
        सामने में भले ही तन-मन-धन अर्पण कर दें सभी लेकिन अमीर का बच्चा आवारागर्दी न करे, सभ्य और सुसंस्कृत हो जाए तो पता नहीं कॉलोनी वाले क्यों जलने लगते हैं और हरेक सफलता में षडयंत्र सूंघते हैं । 
        किरण को प्यार है, अटूट प्यार, अपने माँ - बाप से, अपने भाइयों से, अपने दोस्तों से, अपने स्कूल से, अपने घर से, घर की बालकोनी से तथा उन सभी से जिससे उसका जुडाव है, कुछ न कुछ संबंध है । 
        "हमारे घर तो कभी आप आती ही नहीं, कल आइये न और किरण को भी साथ लाइयेगा, जरूर से"- जाते हुए शर्मा आंटी ने कहा था तो बड़ी खुश हुई थी किरण । ऐसा किसी ने पहली बार कहा था -  "किरण को भी साथ लाइयेगा" । मन ही मन सोचती है किरण - "ए किरण ससुराल से आई है क्या रे, कि शर्मा आंटी ने ऐसा कहा - किरण को भी साथ लाइयेगा, जरुर से" । ससुराल से तो नहीं आए हैं लेकिन कभी न कभी तो आयेंगे ही- होठों पर एक मुस्कान तैर जाती किरण के, आवाज नहीं निकलती, मम्मी पूछ ले तो क्या कहेगी और अब चेहरा लाल हो गया किरण का, एकदम सिन्दूरी लाल, होठों को जोर से दबा कर मुस्काई अब वो । 
        वैसे सच तो यही है कि जब लडकियाँ घर से दूर पढने के लिए चली जाती है और एक सामान्य अंतराल पर भी आती है तो घर-परिवार से लेकर आस-पड़ोस वाले भी उसके चेहरे पर ससुराल की चमक खोजते फिरते हैं और ऐसा व्यव्हार, ऐसा प्यार जैसे सचमुच बेटी ससुराल से ही आई हो । 
        किरण आज अपनी माँ के साथ शर्मा आंटी के घर जा रही है । अपनी सीढ़ी से खटाक-खटाक उतर रही है । अभी भी थोड़ा बहुत बचपना है ही किरण में और हो भी क्यों नहीं अभी तो दसवीं की परीक्षा दी ही है उसने । बचपना तो उमर के साथ बढती ही जाती है क्योंकि बचपन में तो लोग अपनी स्वाभाविकता को जीते हैं जबकि बचपना का अभिनय तो बचपन बीत जाने के बाद ही किया जा सकता है । और किरण बचपना क्यों न करे, माँ का ममत्व उसे बचपन की और आकर्षित करता है तो उसकी ;उम्र उसे गंभीर रहने के लिए मजबूर करती है । बालपन और गंभीरता है सुन्दर समायोजन है किरण में । इसीलिए जब वो सीढ़ी से उतरती है तो सैंडिल पटकते हुए खटाक-खटाक-खटाक और जैसे ही खिड़की से पंकज से को अपनी तरफ देखते हुए पाती है, झंडे की तरह लहराता हुआ दुपट्टा व्यवस्थित कर, गर्दन झुका कर दीवाल की ओट में छिपकर माँ की प्रतीक्षा करने लगती है। माँ अभी तक नहीं उतरी है नीचे, कितनी देर से प्रतीक्षारत है किरण - "उफ्फ माँ भी न, बगल में जाना है फिर भी कितना मेकअप करने लगती है"। जब आप किसी की प्रतीक्षा करते हैं तो घड़ी की सुईयों की भी हवा निकल जाती  हैं ।
        पंकज जी खिड़की पर जमे हुए हैं - कब निकलेगी ओट से, एक बार और देखते, सही से देख ही नहीं पाया, पता ही नहीं था इसमें कोई लड़की भी रहती है । पंकज जी को लग रहा है - हो न हो दीवाल में कोई दरवाजा है जिससे अन्दर चली गई होगी लेकिन, उतरी तो छत से है तब नीचे के दरवाजे से ऊपर कैसे जा सकती है, बिना सीढ़ी के, नहीं-नहीं छुपी हुई है - पंकज जी अब भी जमे हुए हैं अपनी खिड़की पर ।   ………… क्रमशः 

Monday 7 October 2013

अथ पंकज पुराण: क क क किरण (पार्ट -2)

        किरण को यह पहली बार उसी विद्यालय में पता चला कि लड़की - लड़के भी आपस में दोस्त हो सकते हैं, जैसे लड़की - लड़की या लड़का - लड़का | किरण को यह भी वहीं पता चला कि आँख मारना कभी - कभी ईशारा करना से भी आगे की बात होती है| यह आगे की बात का पता तब चलता है जब किसी खास के आँख का मारना किसी विशेष के हार्ट का एक्सीलेटर बन जाए | 
        किरण भी तो लड़की ही थी न, इसीलिए इस मामले में वो भी अंतर्मुखी थी | मन में गुदगुदाहट तो होती और अकेले में होठों पर थिरकने भी लगता, लेकिन अपनी असामाजिक भावनाओं को ताबूत में बंद रखना उसने भी सीख लिया था, वहीं पर |
        वास्तव में होता ये है कि जो विचार, जो भावना रूपी बीज हमारे अवचेतन मस्तिष्क में अरसों तक दबी रहती है, वो उचित समय, उचित मौसम में धरा का सीना फाड़कर अवश्य ही अंकुरित हो जाती है | जब ये पौधा एक बार अंकुरित हो जाय और उसे समय - समय पर नियमित रूप से पोषित किया जाने लगे तो फिर उस विचार की, उस भावना की फसल लहलहाने लगती है | हरियाली ही हरियाली चारों तरफ | 
        किरण पहले पहल तो दो दिनों की भी छुट्टी होने पर भाग कर दरभंगा आ जाती | लेकिन धीरे - धीरे उसका आकर्षण बढ़ता गया - पढाई के प्रति, वहाँ के माहौल के प्रति और उसके दरभंगा आने का अंतराल भी बढ़ता चला गया | होता है, ये भी होता है, जब हम किसी के प्रति आकर्षित हो जाते हैं तो सब कुछ आगे - पीछे भूल जाते हैं, उस समय तक के लिए जब तक कि उस आकर्षण की चमक फीकी न पड़ जाए | 
        किरण को अच्छा लगने लगा था विद्यालय का माहौल | कोई  शक नहीं वो पढने में होशियार थी, लेकिन उम्र के साथ होने वाले शारीरिक परिवर्तन ने उसके मानसिक परिवर्तन में हलचलें पैदा कर दी थी | जिन लड़कों से वह बात - बात पर चिढती, झगडती उसका सान्निध्य सुखद लगने लगा था उसे | सभी छात्र - छात्रा जब जुटते थे तो गाना - बजाना, डांस भी हो जाता - "इट्स अ टाईम टू डिस्को" |
        दसवीं की परीक्षा के बाद एक महीने की छुट्टी, हॉस्टल बंद तो दरभंगा आना ही था | कैसे रो रही थी किरण सभी से गले मिल - मिलकर | उसको रोता देख तो ऐसे ही लग रहा था - डोली चढ़ के किरण ससुराल चली | "ए किरण इतना क्यों रोती है रे, हमलोग एक महीने के बाद तो फिर मिलबे करेंगे, कोई हमेशा के लिए थोड़े ही न जा रहे हैं, अब चुप हो जाओ नहीं तो कुट्टी कर लेंगे" | किरण चुप हो गई, होंठ फ़ैल गया, आँसू के दो बूँद ढुलक कर उसके होठों को तर कर दिया, कुछ जीभ पर भी चला गया, मीठा - मीठा स्वाद था उसका | ये तो सबको पता है कि दुःख के आँसू नमकीन होते है और ख़ुशी के मीठे लेकिन दोनों की शक्लें एक ही तरह की होती है तो पहचानने में थोड़ी समस्या आ ही जाती है |
       किरण के दोस्तों को नहीं पता था कि जिसके बिछड़ने के गम में किरण इतना विरहिणी हो रही है, इतना आँसू बहा रही है, यह सब छुट्टी के बाद धरा का धरा रह जाएगा | वैसे ये किरण को भी कहाँ पता था कि वो सदा के लिए अब दरभंगा जा रही है | इन चार - पाँच सालों में दरभंगा बहुत प्यारा हो गया है | इसके लिए तो नवोदय क्या, सूर्योदय - चंद्रोदय सबको भुला दूँ | "आई लव यू दरभंगा" - अपनी बालकोनी से किरण ने कहा हौले से - चुपके से और पंकज जी इधर खिड़की में कान लगाये हुए फुसफुसाते हैं - "क क क किरण, तू है मेरी किरण", डिट्टो शाहरुख़ की तरह बोलते हैं पंकज जी | 

Thursday 3 October 2013

अथ पंकज पुराण: क क क किरण (पार्ट -1)

         कोई पूछता नाम, नाम क्या है आपका? फ़िल्मी स्टाईल में वो बोलती "किरण, किरण भारद्वाज" | पंकज जी तो एकदम शाहरुख़ बन जाते "क क क किरण, वो है मेरी किरण" |
        कान्वेंट स्कूल की छात्रा, फर्राटेदार अंग्रेजी, ग्यारहवीं में बायलोजी, डॉक्टर बनने की चाहत, अपनी से ज्यादा मम्मी - पापा की | तीन भाइयों की अकेली, सबसे छोटी, लाडली बहन किरण |
        भाई नं 1 - मुंबई में किसी एमएनसी में इंजीनियर, विवाह योग्य उम्र | सब तो यही कहते कि शादी वादी सब कर धर के बैठा है, चूना लगा दिया बाप को | भाई नं 2 - केरल की किसी सरकारी कॉलेज में मेडिकल स्टूडेंट | दिखने में स्मार्ट, पहली बार मूंछ छिला कर आया तो कॉलोनी वाले कहते "नालायक है, बाप जिन्दा है और मूंछ छिला कर आया है शरम भी नहीं आती" | भाई नं 3 - पटना में लगातार तीन सालों से इंजीनियरिंग की तैयारी |  इस बार निकलने का चांस है, मम्मी - पापा को तो हरेक बार यहीं आश्वासन मिलता |
        पिता, फॉरेस्ट विभाग में रेंजर थे, रांची में | अकूत काला धन से दरभंगा का घर चमका रखा था | पायदान तक पर सफ़ेद मार्बल लगा रखा था, झक्क सफ़ेद, दूधिया और अहाते में कई तरह के फूल - अड़हुल, कनेर, गुलाब और एक जो छोटा - छोटा फूल होता है उजला - उजला, डंठल नारंगी, सुंगंधित, सुबह - सुबह जमीन पर ढेर बिखडा रहता है, वो भी था | 
        माँ, असाधारण सा दिखने की कोशिश करने वाली एक साधारण सी महिला थी | चेहरे पर अमीरी चमकता रहता और चलती तो चाल में एक गर्व झलकता | कॉलोनी के लड़के यदि दिन में चार बार भी देख ले तो - "आंटी नमस्ते - आंटी नमस्ते" कर आशीर्वाद लेते नहीं अघाते और आंटी भी भाव - विभोर हो जाती |
       बचपन में किरण पढने में बहुत होशियार थी | है तो अभी भी लेकिन अब बचपन बीत चुका है और वो विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण होने वाले उमर में पहुँच चुकी है, परिणामस्वरूप उसकी होशियारी में भी विभाजन हो गया है |
        घर में सबसे छोटी और पैसा भरा पड़ा था घर में , अतः इनकी हरेक इच्छा जुबान से फिसली नहीं की पूरी हो जाती, नो खीच - खीच, नो टेंशन | इसीलिए स्वाभाव से थोड़ी जिद्दी, थोड़ी अल्हड़ लेकिन थी तो पढने में होशियार तो सात खून माफ़ |
        छठी क्लास में नवोदय विद्यालय की परीक्षा में पास हुई | परिवार में सब खुश थे, बहुत खुश और वो भी थी, लेकिन रोये ही जा रही थी | क्यों, क्योंकि अब उसे दूर रहना पड़ेगा अपने घर से चूँकि नवोदय विद्यालय तो दरभंगा शहर से दूर था | जाने के समय में तो खूब पैर पटक - पटक कर विलाप कर रही थी | छठी क्लास में तो सभी बच्चे ही होते हैं न, खास कर वो जो बचपन से अपने परिवार के साथ रहकर पढ़ते हैं | लेकिन जैसे ही आप पढ़ने के लिए गृहत्याग करते हो तो ज्ञान में वृद्धि यकायक होने लगती है और आप अल्प समय में ही अनुभवी हो जाते हैं | हाँ, ये अलग बात है की सभी का ज्ञान - क्षेत्र अलग - अलग होता है, स्वभावनुसार |
        इस प्रकार राजकुमारी किरण हॉस्टल पहुँच गई | "ऊंह, यहाँ पर तो टीवी भी नहीं है, बेड कितना पतला है, खाना भी बेकार है, पता नहीं सारे स्टूडेंट कैसे खाते हैं, छीह"- आरंभ में यही हाल रहा किरण का | लेकिन धीरे - धीरे किरण फलक से उतर कर जमीन पर चलने लगी, गुलाबजामुन से आम हो गई | होता है भाई, जब परिस्थितियाँ ही अंगूठा दिखाने लगे तो गधे को भी बाप बनाना पड़ता है | .............क्रमशः

Wednesday 25 September 2013

अथ पंकज पुराण : प्रेम की नैया है हमरे भरोसे



     वो दरभंगा नवोदय विद्यालय की छात्रा थी, जो दरभंगा टाउन में नहीं था और ये सीएम साइंस कॉलेज का छात्र था, जो दरभंगा टाउन में था । उसका दरभंगा टाउन में घर था,  लेकिन वो टाउन से बाहर रहती थी, जबकि इसका घर तो गाँव में था लेकिन पढने दरभंगा आया था । उसने दसवीं की परीक्षा दी थी और इसने इंटरमीडीयेट की । जहाँ उसका घर था उससे जुड़े हुए दूसरे मकान में हमलोग किरायेदार थे और मैं हालाँकि इससे जूनियर था लेकिन थे हमलोग मित्रवत| “हमलोग” अर्थात श्री श्री 1008 पंकज जी महाराज, राजा और मैं| साथ में तो राजू भैया भी रहते थे, लेकिन वो सबके भैया ही बने हुए थे | 
      उसका परिवार पहले मंजिले पर रहता जबकि हमलोग पड़ोसी मकान के ग्राउंड फ्लोर पर थे | उसके और हमलोगों के आवास की बनावट कुछ इस तरह से थी कि पंकज जी महाराज के घर की खिड़कियों से उसके घर की बालकोनी का बड़ा ही नजदीकी संबंध था | ऐसा लगता की ये खिड़कियाँ उस बालकोनी में ही लगी हो और उनलोगों को छत से उतर कर बाहर जाने के लिए पंकज जी की नजर से गुजरना भी लाज़िमी था | वो दरअसल में दसवीं की परीक्षा देकर वक्त गुजारने दरभंगा अपने घर आई थी | लेकिन पता नहीं क्यों उसने ग्यारहवीं में दरभंगा में ही एडमिशन क्यों लिया जबकि नवोदय में तो बारहवीं तक की व्यवस्था थी | बाद में पता चला की फ्यूचर डॉक्टर साहिबा ने इसके लिए अपने घरवालों से जिद की थी | 
      हमारा और पंकज जी का कमरा एक ही साथ था अगल – बगल में | कमरे के पीछे एक छोटा सा खुला अहाता था, वो उस छोटे से मुहल्ले के बीचों बीच था और वहाँ उस छोटी सी कॉलोनी के हमउम्र लड़के क्रिकेट खेला करते | मुझे तो कुछ का नाम भी अब तक याद है  – कुणाल, सौरभ, रोहित और एक जुड़वा राम – श्याम | पंकज जी अपने कमरे से और मैं अपने कमरे की खिड़कियों से उस कॉलोनी क्रिकेट का लुत्फ़ उठाया करते | चूँकि राजा का कमरा थोड़ा अलग हट के था इसलिए वो उस नियत समय में मेरे ही कमरे में आ जाया करता | बाकी बचे राजू भैया, तो चूँकि वो काफी समय से उस हस्तिनापुर कॉलोनी में कम्पीटीशन की तैयारी के भीष्म बने हुए थे, अतः मुहल्ले में उनकी काफी जान -पहचान थी, इसीलिए वे छत से मैच भी देखते और मुहल्ले की महिलाओं से वार्ता- रस भी लेते रहते थे | कुल मिलाकर हमलोग भी उस कॉलोनी क्रिकेट का दर्शक हुआ करते | हमलोग “भी” इसीलिए क्योंकि खिलाड़ियों की मम्मियाँ और पापागण अपने अपने छत से मैच का दर्शक बनते थे और चूँकि उनके बेटे ही खिलाड़ी थे इसीलिए मैच का प्रथम दर्शक होने का तमगा भी उन्हें ही दिया जाना उचित है | उस क्रिकेट फिल्ड का एक बाउंड्री वाल उसके घर के अगले हिस्से से जुडा हुआ था | चूँकि बाउंड्री वाल कद से बौना था अतः चौकों – छक्कों से उसके अहाते में जाने वाली गेंद लाने में कोई मुश्किल कोई परेशानी नहीं थी | परेशानी इसलिए भी नहीं थी क्योंकि उसका एक ममेरा भाई जो वहीं रहता था वह भी उस कॉलोनी क्रिकेट का एक खिलाड़ी हुआ करता था | इसीलिए वह भी अपने बालकोनी से क्रिकेट का दर्शक बनती थी | उसके दर्शक बन जाने से मुहल्ले के लड़कों में अचानक क्रिकेट प्रेम हिलोरे लेने लगा और धीरे –धीरे खिलाड़ियों की संख्या क्रिकेट के नियमों का उल्लंघन करने लगी | परिणाम ये हुआ कि उस क्रिकेट के लिए नए नियम बनाये जाने लगे, गोया कि गेंद हवा में तैरते हुए बाउंड्री वाल के ऊपर से बाहर चली जाय तो खिलाड़ी आउट आदि आदि | हमलोग भी उचित समय पर अपनी – अपनी खिड़कियों पर जम जाते थे | मैं अपनी खिड़की का वह पल्ला बंद करके रखता जहाँ से वह दिखाई देती थी जबकि पंकज जी अपनी खिड़की के उस पल्ले को तक़रीबन चौबीसों घंटे खोल कर रखते थे, पता नहीं कब उसका दर्शन - लाभ मिल जाए इसीलिए। हालाँकि ये अलग बात है की पंकज बाबू आरंभ में इस आरोप को कतई नहीं स्वीकारते - "अरे नहीं यार स्वच्छ हवा और धूप के लिए खिड़की खुली रखनी चाहिए" "लेकिन पंकज बाबू धूप तो पूरब या दक्षिण से ही आएगी न, खिड़की तो पश्चिम में है और पीछे इतने मकान हैं की इधर से धूप आ नहीं सकती", पंकज जी झेंप से जाते मुस्कुरा कर कहते - "ग़लतफ़हमी में जी रहे हो तुमलोग"। 
      क्रिकेट का गेंद कई बार तो सीमारेखा को चीरते हुए हमारी खिड़कियों से घर में घुस जाता, 'फटाक' जोर से आवाज होती | हमलोग अपने मकान मालिक को 'बाबा' कहते थे | वो रिटायर्ड थे । काफी सनकी लेकिन अच्छे – बुरे का मिश्रण इंसान थे | चूँकि कई सालों तक उसने आर्मी में अपनी सेवायें दी थी, इसलिए हरेक वाक्य में अपशब्द बोलना उनका तो मानो धर्म ही बन गया था | गेंद का धमाका सुनकर वो चिल्लाते – “साला ये आवाज, क्या पीट रहे हो तुमलोग ?” हमलोग अपने – अपने कमरे से बाहर निकल आते –“बाबा पीछे सभी क्रिकेट खेल रहे हैं उसीका गेंद खिड़की से अंदर आ जाता है” “तो खिड़की बन रखा करो न, गेंद मत दो सालों को” “लेकिन बाबा ........” “चोप्प जितना कहते हैं उतना ही करो, घर हमारा है की तुम्हारा, कुछ टूटेगा तो हर्जाना देना पड़ेगा, समझा तुमलोग” । हमलोग उदास, उस रौबदार आवाज से सहम कर अपनी – अपनी खिड़की बंद कर लेते और खिलाड़ियों से यह कहना नहीं भूलते की खिड़की पर गेंद जोर – जोर से मारो | चूँकि हमलोग अपने –अपने बॉक्स से उस कॉलोनी क्रिकेट का सम्मान प्रतिदिन बढ़ाया करते थे अतः खिलाडियों से काफी हेल –मेल बढ़ गई थी | खिलाड़ी तो बॉक्स में बैठे स्पेशल क्लास की अर्जी को ठुकरा भी नहीं सकते अतः इस प्रकार गेंद का आक्रमण खिड़की पर होने लगा –भटाक–भटाक-भटाक | “साला फिर से कौन दरवाजा तोड़ रहा है ?” - बाबा दहारते ।  हमलोग पुनः सामूहिक गान की तरह बोलते – “बाबा वो खिड़की बंद कर दिए हैं न, इसीलिए गेंद .....” बाबा दांत पिसते हुए चिंघारते “खिड़की खोलो जल्दी, साले ये कॉलोनी  वालों ने बच्चे पैदा करके हमारा ही घर तोड़ने के लिए लगा दिया है” | हमलोग विजयी मुस्कान के साथ फटाफट अपनी – अपनी खिड़की पर जम जाते थे | पंकज जी तो धराम से अपने बेड पर कूदता और खिड़की के पल्ले को खटाक से मारता, बालकोनी में भी एक चमक आ जाती | उधर बाबा छत की चढ़ाई करने लगते जैसे कारगिल की चढ़ाई कर रहे हों और चूँकि छत खुली हुई थी तो वहाँ से सभी खिलाड़ियों पर एक साथ वाक् आक्रमण आसानी से किया जा सकता था – “हरामखोरों, भागो यहाँ से, यदि एक बार भी गेंद मेरे दीवाल तक तो छू गई तो खैर नहीं, सबको थाने पहुंचा दूँगा”| सभी खिलाड़ी बाबा के इस रौद्र रूप से डरकर बाउंड्री वॉल की ओट में सांसे रोककर छिप जाते, एकदम निःशब्द | हम आहिस्ता से बिना आवाज किये दुबारा अपनी – अपनी खिड़की बंद कर लेते, लेकिन पंकज जी थोड़ा सा खुला ही रखते थे, घर में स्वच्छ हवा आना चाहिए न | जब इस आक्रमण का शोर कुछ देर तक थमा रहता तो सारे विरोधीगण पुनः मैदाने – ए – क्रिकेट में अपने – अपने हथियारों के साथ जम जाते | 
      इधर बाहर धीरे –धीरे अंधेरा बढ़ता जाता और घरों में बिजली चमकने लगती उधर पंकज जी के चेहरे का फ्यूज उड़ता जाता धीरे – धीरे | ये बातें हमने तब नोटिस की थी जब वह शाम के समय में चुपके से छत पर टहलने के लिए अकेले ही जाने लगे | वह इंसान जो खाने –पीने से लेकर गाना बजाना, मूवी देखना, बाजार जाना सभी कुछ हमलोगों के साथ ही करता अचानक टहलने के लिए अकेले ही कैसे निकल पड़ता है, वो भी अकेले | रवीद्रनाथ को तो उसने अभी तक पढ़ा नहीं था इसका मुझे पूरा यकीन था | फिर ‘एकला चलो रे’ कैसे और कब से सीख गए पंकज बाबू | अब हमलोगों ने ख़ुफ़िया तरीके से पंकज जी की गतिविधियों पर नजर रखना आरंभ कर दिया| और, धीरे – धीरे हम न केवल उनकी बाह्य गतिविधियों से वाकिफ हुए बल्कि आंतरिक उथल-पुथल की कलई भी हमलोगों के समक्ष खुलने लगी | फिर हमलोगों ने देखा खिड़की –बालकोनी की ईशारेबाजी, हमने देखा छत से  छत की ईशारेबाजी ।  उसकी मुस्कान पर पंकज जी के चेहरे पर उभरने वाली चमक को हमने देखा और दिन ढलते ही पंकज का मुरझाना भी हमने देखा | पंकज जी शर्मीली मुस्कान के साथ निरुत्तर हो जाते| इस प्रकार हमारे मष्तिस्क पर जमा कोहरा छंट गया और फलक से उतरकर एक ‘किरण’ पंकज जी की खिड़कियों पर बराबर पड़ने लगी | मेरे और राजा की यह छोटी सी ख़ुफ़िया इकाई की यह प्रथम सफलता थी और हमारे सर पर ऐसी ही बेशुमार सफलता का सेहरा सजना बाकी था अभी| हमारी ख़ुफ़िया टीम का निष्कर्ष - 'दोनों तरफ है आग बराबर लगी हुई' । इसीलिए अपनी इस छोटी सी सफलता से प्रेरित होकर हमने इस ख़ुफ़िया इकाई के कंधों पर एक गुरुतर जिम्मेदारी डाल दी| जिम्मेदारी – पंकज जी के प्रेम की नैया को पार लगाना |   

Friday 20 September 2013

संस्मरण : सरसों के तेल से बॉडीलोशन तक


मौसम में कुछ बदलाव सा आभास हो रहा है| सर्दी का महीना धीरे – धीरे बूढा होता जा रहा है| वातावरण में नमी की कमी महसूस होने लगी है| इस मौसम में शरीर की त्वचा भी वातावरण से सांठ – गांठ करते हुए खुश्क हो जाती है| यह अजीब सा रूखापन शरीर के साथ मन को भी चिड़चिड़ा कर देता है| नमी के संतुलन को बनाए रखने के लिए या यूँ कहे की बॉडी लोशन का प्रयोग करके हम प्रकृति की आँखों में धूल झोंक कर अपने शारीरिक मानसिक रूखापन का अंत कर देते हैं|  
आज प्रकृति से मेरी मुठभेड़ हो गई| ऑफिस जाने से पहले मैंने जो लोशन लगाया, वह घर पहुँचने से पहले ही दगा दे गई| दुबारा शाम में लोशन लगाना पड़ा| जब मैं अपने कठोड़ त्वचा को विजयी बना रहा था तो अचानक मस्तिष्क में कौंध सा गया कि कभी मैं इस महंगे, सुगंधित और जाने कौन–कौन से शुद्ध–अशुद्ध पदार्थों का सम्मिश्रण कर बनाए गए इस लोशन की जगह सौ फ़ीसदी शुद्ध सरसों का तेल लगाया करता था| वह तेल चूँकि पड़ोस के गाँव में ही पेड़ाई की जाती थी इसीलिए उसकी शुद्धता पर कोई शक नहीं था| गाँव में जब तेलिन “तेल लेब हो” चिल्लाते हुए तेल बेचने आती तो हमलोग वहाँ दौड़कर पहुँच जाते थे और तेल की शुद्धता की परीक्षा के बहाने सर से पैर तक तेल लगा लेते थे और अंत में निर्णायक की भूमिका में आ ये कहकर की “तुम्हारे तेल में मिलावट है हम नहीं खरीदेंगे” घर की तरफ सीना फुलाकर ऐसे निकल पड़ते जैसे की मैदान मार लिया हो|
किसी विशेष मौसम में त्वचा खुश्क होने की समस्या मुझे बचपन से ही रही है| समस्या तब ज्यादा विकराल हो जाती थी जब मुंडन, जनेऊ, विवाह या ऐसे ही किसी विशेष मांगलिक उत्सव में किसी अतिथि के घर मुझे ही अपने घर का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेज दिया जाता था | मैं बहुत विकट संकट में फँस जाता था| एक तो आरंभ से ही शर्मीला रहा हूँ और किसी से बातचीत करने में  कतराता हूँ, खास कर नए लोगों से, दूसरी, मेरी जालिम त्वचा| मैं ईश्वर से प्रार्थना करता कि हे ईश्वर किसी तरह छुपा कर सरसों तेल की व्यवस्था करवा देना| लेकिन भगवान निर्बलों की क्यों सुने भला, वो तो उसकी सुनते हैं जो चालीस मन के सोने का मुकुट चढ़ाए या करोड़ो का गुप्त दान अर्पित करे| वह सरसों का तेल ही था जो मुझ असामान्य मनुष्य को सामान्य बनाए रखने में मदद करता था| आखिर मैं वहाँ कैसे कह पाता कि मुझे बदन में लगाने के लिए सरसों का तेल दो| अपनी छोटी उम्र की बड़ी इज्जत का मुझे बखूबी ख़याल था| बच्चों की आत्मा बड़ी होती है, मैं छोटा था तो मेरी भी आत्मा बड़ी थी, लेकिन मैं जैसे–जैसे बड़ा होता गया हूँ, गाँव से शहर की ओर पलायन उसी क्रम में होता रहा है– गाँव से छोटा शहर, फिर उससे बड़ा, और बड़ा, बहुत बड़ा और हमारी आत्मा, हमारे शरीर और निवास स्थान के विपरीत जाते हुए छोटी होती गई| शर्मीलापन तो न जाने कब ख़त्म हो गया और अब तो बेगैरत की हद तक निर्लज्ज हो गया हूँ|
मेरी त्वचा ने लोशन का स्वाद पहली बार तब चखा था जब मैंने पढाई के सिलसिले को जारी रखने के लिए गाँव से पहली बार एक छोटे से शहर में अपना डेरा जमाया| एक महीने का खर्च घर से एक ही बार में मिल जाया करता था| खर्च का हिसाब घर में कुछ इस तरह दिखाते थे कि उसमे लोशन पर खर्च दिखे भी नहीं और गृह सरकार से उसके लिए मुद्रा पारित भी हो जाए| लोशन की तरफ आकर्षण के पीछे तीन कारण था – पहला, एक ही स्नेहक पदार्थ का प्रयोग करते-करते मन ऊब सा गया था, दूसरा, लोशन एक आकर्षक डिब्बे में बंद रहती है और दिखने में सुन्दर लगती है और तीसरा, सुगंध| ये तो जगजाहिर है कि सुन्दरता के साथ सुगंध का समायोजन होने पर वह न केवल आकर्षण का केंद्र होती है बल्कि मूल्यवान भी हो जाती है| “सोना में सुगंध” वाला मुहावरा भी तो इसको ही ध्यान में रखकर गढ़ा गया है| तो इस प्रकार गाँव से जैसे–जैसे दूर होता गया सरसों का तेल मेरी त्वचा से फिसलती चली गई तथा मैं सुंगंधयुक्त सुंदरी के गिरफ्त में फँसता चला गया|
अपनी त्वचा को प्राकृतिक प्रकोप से बचाने तथा बढती जा रही उम्र को धोखा देकर स्वंय को जवान बनाए रखने के लिए मैं प्रतिदिन सुबह स्नानादि के बाद उसका उपयोग करता हूँ| मुझे नहीं पता था कि किसी पर इतना निर्भर नहीं होना चाहिए जिससे कि वह अपना गुलाम ही बना ले| ऐसा ही तो हुआ था – पहले मैं अपनी इच्छा से उसका सदुपयोग करता था, किन्तु आज उसने मुझे बाध्य किया कि अब से शाम में भी उसकी कोमलता को अपनी त्वचा पर लेपन करें|
यही सोच रहा हूँ, सचमुच मानव अपनी इच्छाओं का गुलाम ही तो है| जैसे–जैसे हम तथाकथित सभ्य होते गए हैं, हमारी आवश्यकताएँ बढती गई और हमने प्रकृति से, प्राकृतिक वस्तुओं से अपना नाता ही तोड़ लिया तथा कृत्रिमता और यंत्र का सहारा लेकर यंत्र मात्र रह गए हैं| स्वछंदता के स्थान पर गुलामी का जीवन जीने के लिए अभिशप्त| 

Sunday 15 September 2013

एक यात्रा वैष्णो देवी की


   कुछ दिन पीछे ही वैष्णो देवी की यात्रा सम्पन्न करके वापस दिल्ली पहुँचा हूँ वहाँ मैंने देखा आस्थाओं का एक ऐसा सैलाब जो उमड़कर दूर निर्जन पहाड़ों में अपने विश्वास की अटूटता को कायम रखने के लिए वैष्णो देवी की छोटी सी शिला पिंड के दर्शन हेतु बड़ी-बड़ी शिलाओं को पार करते हैं उस आस्था की निर्मल गंगा को नमन, उस विश्वास की प्रचंडता को नमन और नमन मानव मन के सँकरे गह्वर में बसी उस पवित्र भावनाओं को भी, जो विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी आस्था को क्षीण नहीं होने देती, अपने विश्वास की डोर कटने नहीं देती और गह्वर में बसी पवित्र भावनाओं को जिन्दा रखती है।
   आज जबकि देश में सांप्रदायिक शक्तियाँ धर्म और मजहब को पेशा बनाकर इंसानों  में नफ़रतों और साम्प्रदायिक उन्माद की भावनाओं के रावण को उत्तेजित करने का कुकृत्य कर रही है और उस पर अपने स्वार्थ की रोटी सेंक रही है, वहाँ मैंने देखा अपने मजहब को भूलकर धर्म-पथ पर चलने में असमर्थ तीर्थ यात्रियों को अपने पीठ पर बीठाकर ले जाने वाले मुस्लिमों को। मैंने देखा भारत के सुदूर दक्षिण में बसे इसाई परिवारों को और कुछ सिख परिवारों को भी जो इस तथाकथित हिन्दुओं के जन्मसिद्ध अधिकार वाले तीर्थस्थलों का भ्रमण इसलिए भी करते हैं क्योंकि वह हमारे देश की सांस्कृतिक विरासत है। वास्तव में श्रद्धालुओं का कोई धर्म नहीं होता, वह तो धर्म, मजहब और जाति-पाँति के संकीर्ण मानसिकता से परे होता है। उसे तो अपने श्रद्धेय पर अटूट विश्वास होता है और रिश्ता, भक्त - भगवान का बन जाता है।
   यदि श्रद्धेय और श्रद्धालुओं के बीच का रिश्ता इसी कदर अटूट बना रहा।  यदि लोग इसी तरह अपने धर्म, मजहब और जाति-पाँति को भूलकर इस धर्म-पथ को अपना कर्तव्य-पथ बनाने लगे और स्वंय को इस संकीर्ण दीवारों की कैद से मुक्त कर एक दूसरों के साथ इंसान-इंसान और भाईचारा का रिश्ता कायम करने लगे तो वह दिन दूर नहीं होगा जब देश से असामाजिक तत्व नष्ट हो जाएंगे और हमारा देश विश्व शांति का अग्रदूत बन जाएगा वैष्णो देवी से हमारी यही प्रार्थना है जय माता दी

Tuesday 3 September 2013

कांटे की व्यथा कथा

फूलों की कोमल पत्ती को 
तोड़ न ले जाए माली,
दिन-रात यहाँ करता रहता
हूँ इसीलिए पहरेदारी |

विश्राम मैं कभी करू न
सहूँ मैं झंझों के झोके,
खड़ा हमेशा रहता हूँ
आहत का क्रंदन उर लेके|

यह पौध हमें क्यों पाल रहा
यह कठिन परीक्षा साल रहा,
पांडव जैसा हो गया गति
लुट गयी हजारों द्रौपदी,
आते जब कोई चुनने को
मैं मौन खड़ा देखा करता,
अपने क्रंदन और पीड़ा को
न उसके कर में हूँ भरता,
अब कौन कृष्ण कहलायेगा
गीता का सार सुनाएगा,
विष मेरे शीर्ष भी उगलेंगे
कोमल पत्ती सुरभित होंगे|

पर एक बात अब भी चुभता
ऐसी सुन्दरता ही क्या
कर सके जो न अपनी रक्षा,
अपनी रक्षा - अपनी रक्षा| 

Tuesday 2 April 2013

नितांत अकेला

 जब कभी मैंने
नए रिश्ते बनाए हैं
सपनों के महल सजाएं हैं 
 पूर्णिमा के चाँद की तरह 
खुशियाँ दमकने लगती है 
भाग्य बुलबुल की तरह 
मन की खिड़कियों पर चहकने लगती है
किन्तु, उसी क्षण 
चाँद बनता है
काले बादलों का ग्रास 
हमारी अपेक्षाएँ बढती है और 
रिश्तों में आ जाती है खटास,
लोग मुझे अब जानने लगे हैं 
इस क्षत - विक्षत व्यक्तित्व को 
पहचानने लगे हैं,
अब कुछ मुझसे कतराते हैं 
और कुछ को नहीं जँचता हूँ 
इसीलिए जो दूर भागते हैं 
मैं भी उनसे बचता हूँ,
भय के वशीभूत होकर मैंने 
सारे रिश्ते तोड़ दिए हैं 
नए रिश्ते बनाने छोड़ दिए हैं 
और हरवक्त - हमेशा 
दुनिया की इस भीड़ में 
रहता हूँ अपनों से दूर अकेला 
और नितांत अकेला । 

Tuesday 26 February 2013

कुछ तुम बोलो कुछ मैं बोलूँ ।

कुछ तुम बोलो कुछ  मैं बोलूँ
क्यों मध्य पड़ी गहरी गाँठे
कर आगे कर मिलकर खोलूँ
कुछ तुम बोलो कुछ मैं बोलूँ ।

क्यों छोटा गड्ढा जन्म लिया
धीरे - धीरे यह क्यों पसरा
यह पता नहीं तुम क्यों बिफरे
यह भी न पता मैं क्यों अकड़ा,
गड्ढे का कीचड़ चादर पर
आओ मिलकर उसको धो लूँ ।
कुछ तुम बोलो कुछ मैं बोलूँ ।

निराशा और घृणा की बदली
बादल बन मुझको घेर रखा
तेरी आशाएँ ध्वस्त हुई
मैं भी तुमसे कुछ कह न सका,
बदली बरसे आँसू बनकर
मिलकर आओ पलभर रो लूँ ।
कुछ तुम बोलो कुछ मैं बोलूँ ।

तू दोष मढ़े मेरे सिर पर
तुमको जब मुझसे द्वंद्व हुआ
लेकिन यह भूल तुम्हारा है
मुझमे भी अन्तर्द्वन्द्व हुआ,
मत लाश को ला देगी बदबू
आ खुद को खुद से ही तोलूँ ।
कुछ तुम बोलो कुछ मैं बोलूँ ।

मैं भी यायावर तू भी है
कुछ दिन तो साथ रहना होगा
क्यों बैर बढ़े तुम भी सोचो
सुख - दुःख भी बाँट सहना होगा,
सब लोग रहेंगे हँसी ख़ुशी
आ सुन्दर सपने संजो लूँ ।
कुछ तुम बोलो कुछ मैं बोलूँ ।




Saturday 16 February 2013

निःश्चल सज्जनता


राहें सूनी है दूर - दूर 
सब छोड़  मुसाफिर चले गए,
और सज्जनता उपहास बना 
जब - तब देखो हम छले गए ।

अनजान डगर पर निकले थे,
थे दिल के  हम भोले - भाले,
वह चोर लुटेरा ठग निकला 
जिस - जिसको समझे रखवाले,
सब करते रहे कंदुक - क्रीडा 
मच्छर की भाँति मले गए ।

यह सज्जनता और भोलापन 
अब अवगुण कहते सब जग में,
पर सोच मुसाफिर दुर्जन तो 
मिलते ही रहेंगे पग - पग में,
जब दृढ दुर्जन दुर्जनता पर 
तो मैं सज्जनता क्यों छोडूँ,
जाने दो मलो नहीं हाथ कभी 
यह सोच सही है भले गए ।



Monday 4 February 2013

अरे हिमालय बता मुझे



अरे हिमालय बता मुझे
ये क्या होता है?
गंगा यमुना बहती है,
या तू रोता है?

गंगा धार बनी है किसकी याद बता,
किसकी यादें रही अभी तक तुझे सता,

तुम किस आशा में चिरकालों से हुए खड़े,
झंझा - तूफान, गर्जन - तर्जन से लड़े - अड़े,

किस विरहा में धीरे - धीरे घुले जा रहे,
किसकी यादों में स्वंय भूले जा रहे,

तुम्हे नहीं पता गंगा की धारों में
हँस - हँस लोग पाप धोते हैं,
इधर किसी का घर जलता है
और कोई हाथ सेते हैं।

यह मेरी वाणी जब तक गंगा धार
सिन्धु में नाद रहेगी,
दुनिया तेरी विरह कथा को याद करेगी।

है मुझे पता यदि कोई ऐसे धीर बनेगा ,
प्रेम मिले न मिले प्रेम की पीर बनेगा।